दक्षिण एशिया में मुक्त व्यापार समझौते क़रीब दो दशकों से किये जा रहे हैं और उनके असरात का आकलन करने के लिए इतना वक़्त काफ़ी है। अर्थव्यवस्था के तमाम हिस्सों में भारी तबाही और नुक़सान दर्ज हुए हैं। भारत और पाकिस्तान में यह नुक़सान इस हद तक हुए हैं कि दोनों ही देशों के उद्योगों के महासंघों ने अपनी सरकारों से नयी व्यापारिक संधियों पर पूरी तरह रोक लगाने की माँग तक कर डाली थी।एफटीए समझौतों ने भारत के खाद्य क्षेत्र का जो हाल किया है, वो ख़ासतौर पर डराने वाला है। देश की खाद्य उत्पादन क्षमता पर काफ़ी प्रतिकूल असर पड़ा है। उन्नीस सौ नब्बे के दशक की शुरुआत में भारत खाद्य तेल उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर था। लेकिन मलेशिया और आसियान (एसोसिएशन ऑफ साउथ ईस्ट एशियन नेशन्स) देशों के साथ एफटीए पर हस्ताक्षर करने के बाद भारत अब दुनिया में खाद्य तेल का सबसे बड़ा आयातक देश बन गया है।इन नये एफटीए समझौतों के दौर में शुल्क (टैरिफ) में कमी आना या राजस्व में घाटा होना दरअसल तैरते हिमखंड का ऊपर-ऊपर दिखने वाला एक छोटा-सा हिस्सा भर है। उससे कहीं ज़्यादा ख़तरे इसमें अदृश्य हैं और छिपे हुए हैं। आज के व्यापारिक समझौते केवल आयात-निर्यात के नियमों तक नहीं रुकते बल्कि वे निवेशकों को और कॉर्पोरेट क्षेत्र को मुनाफ़ा पहुँचाने के लिए उन्हें नियम-क़ानून पार कर क़ानूनी ढाँचों तक को बदल डालते हैं।पूरा लेख पढ़ने के लिया यहाँ क्लिक करें